नमस्कार मेरे दोस्तों, आज बहुत दिनों बाद कुछ लिखने का मन हुआ, कुछ अलफाज, एक कहानी सी बन कर दिमाग में हलचल मचा रहे थे, बस निकाल दिया बाहर और बन गई एक और कविता।
सबकी जिंदगी मुश्किलों से गुजर कर ही निखरती है,संवरती है, हम सब ने एक औरत के तौर पर अपनी जिंदगी में बहुत कुछ सहा है ।
बहुत कुर्बानियां भी दी,हमे जैसा सिखाया गया, वैसे ही खुद को ढालने की कोशिश करते रहे, कुछ कामयाब भी हुए, अपनी जगह बनाने में, पर कुछ की कोशिश बेकार गई।
कुछ शायद अब भी कोशिश में लगे हो, पर क्या उनकी इमानदारी का उनको ऐसा सिला मिलने वाला है ।
जैसा की मेरी एक दोस्त को मिला, मेरी ये कविता असल में उसके दर्द की आह है, जिसे सुनने के बाद मै एकदम सन्न रह गई, मेरी सहेली एक सम्पन्न परिवार से है, एक बड़ा सा आलीशान घर, कई सारे नौकर -चाकर सुख सुविधाओं का हर सामान मौजूद, ससुर रहे नहीं, बच्चे बाहर रह रहे है। घर में बस वो उसके पति और उसकी सास, सास की हर बात को कहने से पहले पूरा करती है वो, पर फिर भी सासु माँ कभी खुश नहीं रहती है।
पीठ पीछे लोगों से बहु की बुराई करती है, अभी एक दिन मेरी सहेली कहीँ बाहर जाने को तैयार हो कर निकली, फिर कुछ भूल कर घर वापस आई तो उसकी सास काम वाली से कह रही थी, देखो उपर से कितना सुन्दर दिखती है, और इसके अन्दर पता है "एक नागिन" बैठी हुई है, उसके कदम दरवाजे पर ही रूक गये, अन्दर आ कर सामान लेने की हिम्मत नहीं हुई "इतना जहर " क्यों सोच सोच दिमाग़ फट रहा था उसका, ये सिला है,उसकी आज तक इमानदारी से रिश्ता निभाने का, उसकी फिर भी हिम्मत नहीं हुई की सास के सामने जा कर उनके खयाल पर सवाल करे। एक परदा हैं पड़ा रहे तो अच्छा, उठ गया उस दिन, नजरों की हया खत्म हो जाएगी।
तो क्या किया जाये, क्या ऐसे लोगों की वजह से रिश्तों पर से विश्वास नहीं उठ जाएगा, समझ नहीं आता कुछ, अच्छा है,उतना ही करो, जितना तुम कर सको, या कि जितने के लायक है, सामने वाला वरना ऐसे ही मेडल मिलेंगे शायद,
अपनी खुशी, अपने शौक को भी तरजीह दो, जियो भी, ना कि सिर्फ लोगों को जीने की वजह दो।
पिंजरे की बुलबुल
मैं एक पिंजरे की बुलबुल थी,
जिसे पिंजरे में खुश रहना, सिखाया गया,दाना पानी दे कर,पिंजरे के अन्दर ही,जीना बतलाया गया,
उन लोहे की दीवारों की परिधि के भीतर,
उड़ो, चहको, फुदको, एक सीमा बांध दी गई,
उसी में अपना जीवन गुजारने की सलाह दी गई,
अपनी, खुशी, अपने शौक, अपने हुनर भूल गई थी,
पिंजरे में रह कर मैं, उड़ना भी भूल गई थी,
जहाँ गुनगुनाने की भी इजाजत नहीं थी,
पंखों को फैलाने की इजाजत नहीं थी,
जहाँ जिन्दा तो थी, मगर जिंदगी मेरी अपनी नहीं थी,
फिर भी ढाला हर माहौल में खुद को, सोच कर की,
जिंदगी कहाँ बार बार मिलती हैं,
मरजियों में औरों के खुश रहने लगी,
मैं उन दिवारों में ही, अपनी दुनिया तलाशने लगी,
कैद करने वालों को ही,अपना समझने लगी,
बस जिंदगी आसान हो गुजरने लगी,
पर क्या इतनी ही आसान थी जिंदगी ?
सब किया,पर अपना नहीं बना पाई किसी को,
मेरी हर अच्छाई, मुझे बहुत भारी पड़ी,
जितना झुकी, उतना जमीन में दबा दी गई,
जितना करीब, आने और लाने की कोशिश की,
अपनों ने उतना ही, हर बार रूसवा किया,
मैंने जिनके लिए, पिंजरे में रहना स्वीकार किया,
उन लोगों ने मुझे अकेला छोड़ दिया,
दर्द, तकलीफ, तनाव, इस कदर हावी हुआ,
एक दिन मैंने पिंजरे की दीवारों को तोड़ दिया,
पंखों को वक्त लगा फैलाने में, जकड़े जो थे बरसों से,
धीरे धीरे खोला उनको और,
खुद को हवाओं के, रूख के सहारे छोड़ दिया,
सशक्त, स्वछन्द, समर्थ, अब "मैं"
खुले आसमान में उड़ती हूँ,
अपनी खुशी,अपने अरमान,अपने सारे शौक पूरे करती हूँ,
बहुत जी लिया, उनके लिए,
जो मेरे थे ही नहीं, अब बस अपने और,
अपने छोटे से परिवार के लिए जीती हूँ,
लोग तब भी बुरा कहते थे, जब मैं उनकी लिए जीती थी,
अब भी वही सब कहते है, अफसोस कि किनके लिए,
जिंदगी के इतने, अनमोल पल लुटा दिये,
जो पीठ पीछे हमेशा मुझे रूसवा किये,
अब वजह नहीं है कोई, किसी आडम्बर की,
नहीं फिक्र किसी के कुछ कहने की,
हर चोट ने मुझे और मजबूत किया है,
मै अब बुलबुल नहीं किसी पिंजरे की,
अपने मन की रानी हूँ, अपने हाथों से,
लिखती अपनी जीवन की कहानी हूँ,
सब देखती हूँ, समझती हूँ, कौन कितने पानी में है,
वक्त खुद सबको जवाब देगा एक दिन,
मै तो बस अब अपनी नई जिंदगी की नई रवानी पर हूँ,
कैद किसी पिंजरे में नहीं थी,अपनों के भरोसे में कैद हुई थी,
जब आंख खुली, भरोसा तार-तार हो चला था मेरा,
टूट कर भरोसे ने, मुझे जिंदा कर दिया लेकिन,
अब ना कोई, पिंजरा है, ना दिलों पर कोई पहरे,
खुली हवा में, उड़ती-फिरती हूँँ, सपने देखती सुन्दर सुनहरे !!
Excellent writing and thought .
ReplyDeleteThank you so much dear Nillima 🤗💞
DeleteAmazing Yayi Maa💜💜
ReplyDeleteThanks @faiz Eram 😘😘
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