स्त्री एक कविता



आधुनिक युग में स्त्री की परिभाषा बदल गई है। पर हम जिस दौर से है। वहां बहुत अलग सोच देखी है हमने, स्त्री को ले कर
कहानी थोड़ी पुरानी है।  पर अभी इस कहानी के पात्र हमारे आस पास हमें देखने को मिल जायेंगे। आने वाले समय में शायद ये लोग हमें देखने को न मिले, और इनकी कहानियाँ भर रह जाए, मुझे अच्छे से याद है।  बचपन में  एक बात हमेशा सुनने मिलती थी।  कि लडकी हो, एक दिन ब्याह कर दूसरे घर जाना है, बस यही जिंदगी का मतलब था।  लडकी समझदार होने की उम्र से पहले ये, समझने लगती थी।  कि उसे बड़े होकर बस शादी करके एक घर संभालना है।

लड़की को भी लगता था, कि यही जिंदगी है।  खुद के सपनों को भूल कर वो भी नये लोग, नये परिवेश, में नये तरीके से जीना सीखने लगती।  घर, घर के काम, घर के लोगों की खुशी उसी में खुश होने की कोशिश करने लगती। एक सफल गृहिणी का तमगा पाने की कोशिश में उसकी उम्र बीत जाती। बावजूद इसके वो पूरी तरीके से कभी किसी को खुश नहीं कर पाती।
नतीजा उसे खुद से ही शिकायतें होने लगती है।

मेरी एक मित्र है। एक सुघड़ गृहिणी, एक समझदार पत्नी और एक बहुत अच्छी माँ, अपने सब किरदार बखूबी निभा रही है।
पति खुश है, कि मुझे अच्छी तरह संभाल रही है। पेंट-शर्ट से ले कर रूमाल-मोजे सब प्रेस किये हुए मिलते है। बच्चे खुश है कि माँ उनके सारे काम खुद ही कर देती है। बच्चो की पसंद का पूरा ख्याल रखती हैं। परिवार भी खुश है। नौकर चाकर भी खुश, पर क्या वो खुद खुश है ? शरीर ऐसा कि लगता है किसी बीमारी से ग्रस्त हैं। जब बात होती है, उनकी बातों में किसी न किसी बात को ले कर चिड़चिड़ाहट होती है। अच्छे से खाती नहीं, रात दिन बस काम, काम और काम की फिक्र, अपने घर परिवार की फिक्र करना हर स्त्री का धर्म है। पर क्या खुद का ख्याल रखना नहीं ....

आज जब शरीर साथ दे रहा है, तब उसकी बेकदरी करतें हैं हम, पर जिस दिन हमारा शरीर साथ नहीं देगा हमारा, तब क्या होगा, तब दूसरों की और देखना पड़ेग, हर जरूरत के लिए, तो क्यो ना वक्त रहते संभल जाएँ ।

माना बचपन में ये सिखलाया गया,
स्त्री के जीवन, का मतलब,
परिवार के प्रति पूर्ण समर्पण ये बतलाया गया,
पति की इच्छा का पालन,
बच्चो का अच्छा पालन पोषण,
यही करना है, उम्र भर,
पारिवारिक जीवन का सुख,
सर्वोपरि है, ये समझाया गया,
कुछ गलत नहीं, इसमें,
हमारी संस्कृति यही सिखाती है,
स्त्री ही परिवार की धूरी है,
ये बात हमें बतलाती है,
माना स्त्री से ही परिवार का आरम्भ है,
पर क्या, परिवार ही एक, स्त्री के,
उसकी स्त्री होने का अंत है,
अपने होने का अहसास खो कर,
एक स्त्री परिवार बनाती है,
पर इस त्याग का क्या, वो प्रतिफल पाती हैं,
सुबह से उठ कर, रात होने तक,
भाग -भाग थक जाती है,
पर फिर भी उसकी जरा सी गलती,
किसी को भी नहीं सुहाती है,
खाने में अगर तो कभी,
वो नमक डालना भूल जाती हैं,
सब लोगों की पल में, त्यौरीयां चढ जाती हैं,
चार लोग हो, घर में, अगर,
सबकी पसंद का ख्याल रख वो,
तीनो वक्त पकाती है,
एक दिन भी अगर हो कोताही,
औलादें पैर पटक चली जाती है,
आईना देखने को भी कभी,
फुर्सत नहीं मिल पाती है,
अपनी सारी जिम्मेदारी,
पर वो बखूबी निभाती है,
खूब प्यार से सबके मन का,
भोजन रोज बनाती है,
सबको खिला कर ही खुश हो जाती,
खुद भूखी रह जाती है,
अपने मन की सारी खुशियाँ,
अपनों पर लुटाती है,
अपने हिस्से की मुस्कुराहटें भी,
अपनों के लबों पर सजाती है,
स्त्री होना ही, उसके जीवन की सच्चाई है,
पर क्या उसके अपने, उसके समर्पण की,
कर पाते भरपाई है,
भागते भागते, उम्र जब चढ आती है,
तब ये, दौड़ती-भागती स्त्री भी थक जाती है,
अब पहले सी चपलता नहीं बदन में,
ना मन में वो चंचलता है,
फिर भी गृहिणी का फर्ज तो,
निभाना ही पड़ता है,
जब सशक्त था, शरीर,
तब उससे दिन रात,काम लिया,
अब साथ देने से उस शरीर ने भी इंकार किया,
कभी यहाँ दर्द, कभी वहां दर्द,
अब शरीर बहाने बनाता है,
अपनी बेकदरी की और,
हमारा ध्यान दिलाता है,
जीवन के अन्तिम पथ पर,
बस शरीर ही को साथ जाना है,
बाकी सब, रिश्ते नाते,
यहीं छोड़ कर, जाना है,
स्त्री होने सा गौरव, कुछ और नहीं है,
स्त्री के बिना, पुरूष का कोई ठौर नहीं है,
सब सहेजो  स्त्रियों, पर एक वादा आज करो,
अपने आपका भी,
सब चीजों के साथ ख्याल रखो,
दौड़ते - भागते हुए भी
आईना, निहारती रहा करो,
अपने अमूल्य शरीर पर,
 ना अपने हाथों अत्यचार करो,
वजूद अपना मिटा कर ही नहीं,
होता सब कुछ हासिल,
अपने आपको भी, थोड़ी दो अहमियत,
ये कहता है, आपका अपना दिल .......













Comments

  1. Replies
    1. आपकी कविता में नारी की जीवन कहानीका साक्षात दर्शन होता है।नर और नारी दोनों एक दुसरे के पूरक हैं।मेरे विचार मे विवाह मे हस्त-मिलन संंस्कार होता है, एक शपथ होती है साथ निभाने की।

      Delete
    2. कविता को भावों को यथावत समझने के लिए धन्यवाद .... 😊

      Delete

Post a Comment